हमारे भारतीय समाज की संरचना कुछ ऐसी है कि यहाँ आधुनिकता और परंपरा साथ-साथ चलती है। आधुनिकता के कारण यहाँ नए-नए चलन और फैशन के साथ साथ लोगों की जीवन-शैली में भी बदलाव आता है। परंतु, वह ठेठ भारतीय परंपरा आज भी मौजूद है और हमेशा रहेगी। चाहे कितने भी नए चलन क्यों न आ जाएँ। यही भारतीय समाज की विशेषता है।
भारतीय समाज की संरचना
भारतीय समाज की संरचना बहुक्षेत्रीय और बहुभाषी है, इसलिए यह एक जटिल संरचना बनाती है। सामाजिक संरचना हर की समाज में इतिहास, जातीयता या सांस्कृतिक परिवर्तनशीलता परवाह किए बिना होती है। जैसा कि हम सभी इस बात को जानते हैं कि भारत अपनी विविधता के लिए जाना जाता है। भारतीय समाज की संरचना हर चीज में परिवर्तनशील है, चाहे वह धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति, परंपरा, खान-पान की आदतें या कुछ भी हो ये सभी तत्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, इसी तरह से एक सामाजिक संरचना बनती है। भारत में सामाजिक संरचना को सामाजिक व्यवस्था की बुनियादी श्रेणियों के बीच संबंध के रूप में बताया गया है।
किसी भी राष्ट्र के शांति और सद्धाव में रहने ले लिए, उसके पास एक उचित सामाजिक संरचना होनी चाहिए। इसमें हमारे आस-पास की समस्त संस्थाओं की स्थिर और विशिष्ट व्यवस्था शामिल है, जिसकी बजह से जनता साथ-साथ रहती है और बिना किसी सामाजिक के भय या डर के आपस में बातचीत करती है। सामाजिक संरचनाओं के उदाहरण कुछ इस प्रकार हैं। जैसे – हमारे परिवार, अर्थव्यवस्था, वर्ग, धर्म, कानून आदि।
भारत एक ऐसा राष्ट्र है, जिसमें हम अनेकता में एकता पाते हैं। विभिन्न जातियों और पंथों, धर्मों और क्षेत्रीय मान्यताओं के लोग एक साथ खुशी-खुशी रहते है। इस प्रकार भारतीय समाज की संरचना की प्रमुख विशेषता ‘अनेकता में एकता’ है।
हमारे भारतीय समाज की संरचना कुछ ऐसी है कि यहाँ आधुनिकता और परंपरा साथ-साथ चलती है। आधुनिकता के कारण यहाँ नए-नए चलन और फैशन के साथ साथ लोगों की जीवन-शैली में भी बदलाव आता है। परंतु, वह ठेठ भारतीय परंपरा आज भी मौजूद है और हमेशा रहेगी। चाहे कितने भी नए चलन क्यों न आ जाएँ। यही भारतीय समाज की विशेषता है।
भारतीय समाज की संरचना जटिल समाजिक व्यवस्था से युक्त है। इसी कारण से इसे ‘बहुलवादी समाज’ भी कहा जाता है। यह विभिन्न भाषाओं, जातियों, जाति विभाजनों और धर्मों की विशेषता है। हमारे भारत के संविधान के अनुसार, भारत की 87% से अधिक आबादी द्वारा 22 प्रमुख भाषाएँ बोली जाती हैं। उनमें से 31% हिन्दी बोलते हैं। भारत में लोगो में अपनी मातृभाषा के प्रति इतना स्नेह और प्रेम है कि वहाँ बोली जाने वाली प्रमुख भाषा के नाम पर कई राज्यों के नाम रखे गए है। इसलिए हमारे भारत के राजनैतिक और सामाजिक माहौल में भाषाएँ एक महत्त्वपूर्ण कारक हैं। अतः भारत में सामाजिक परिवेश की एक और विशेषता ‘भाषाओं में विविधता’ है।
भारतीय समाज अपनी सहिष्णुता और स्वीकृति की क्षमता के साथ-साथ अपने सामाजिक सामंजस्य के लिए भी जाना जाता है, जो इसे अपनी संस्कृति को संरक्षित करने की असाधारण भाईचारे के क्षमता बनाता है। संविधान की प्रस्तावना में भाईचारे के महत्त्व पर जोर दिया गया है, जिससे यह हर नागरिक की जिम्मेदारी बन जाती है।
अतः इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता समानता, अमूर्त प्रकृति, स्थायित्त्व, अंतर, आत्मनिर्भरता, सहयोग, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा, समायोजन और आत्मसात, सामाजिकता आदि है।
भारतीय समाज में जाति व्यवस्था
भारत में जाति प्रथा अथवा जाति व्यवस्था हिन्दू समाज की एक प्रमुख विशेषता है। आधुनिक भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां कैसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान विकसित हुईं थीं। इसका विकास उस समय किया गया था, जब सूचना देना दुर्लभ हुआ करता था और इस पर अंग्रेजों का कब्जा था। सन 19वीं शताब्दी की शुरुआत में मनुस्मृति और ऋग्वेद जैसे धर्मग्रंथों की मदद से किया गया था। 19वीं शताब्दी के अंत तक इन जाति श्रेणियों को जनगणना की मदद से मान्यता दी गई।
जाति प्रथा का प्रचलन केवल भारत में ही नहीं, बल्कि मिस्र, यूरोप आदि में भी था, जो वहाँ अपेक्षाकृत क्षीण रूप में विद्यमान थी। ‘जाति’ शब्द का उद्भव पुर्तगाली भाषा से हुआ है।
पी०ए० सोरोकिन ने अपनी पुस्तक ‘सोशल मोबिलिटी’ में लिखा है –
“मानव जाति के इतिहास में बिना किसी स्तर विभाजन के, उसके रहने वाले सदस्यों की समानता कल्पना मात्र है।”¹
विश्वविख्यात समाजशास्त्री ‘राम आहूजा’ जाति व्यवस्था की विवेचना करते हुए लिखते हैं –
“जाति व्यवस्था जैसी आज है यह अनेक शताब्दियों में विकसित हुई है। प्राचीन काल में (4000 B.C. से 700 A.D., अर्थात् वैदिक, ब्राह्मण, मौर्य तथा मौर्येत्तर काल में (या सांगा, कुषाण और गुप्त काल), इसके कार्य और संरचना मध्य काल (राजपूत और मुस्लिम काल अर्थात् 700A.D. से 1707 A.D. तक) और ब्रिटिश काल (अर्थात् 1757-1947 A.D.) से काफी भिन्न थी।”
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 42)
विश्वविख्यात समाजशास्त्री ‘राम आहूजा’ जाति-व्यवस्था के बारे में ये भी लिखते हैं –
“भारत मे जाति और वर्ग श्रेणीबद्ध क्रम के आधार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। परंतु जाति को, जो धार्मिक विश्वास में आबद्ध है, स्तरीकरण के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए महत्त्वपूर्ण आधार माना जाता है। ‘जाति’ एक आनुवंशिक सामाजिक समूह है जो अपने सदस्यों को सामाजिक गतिशीलता (यानी सामाजिक प्रस्थिति बदलने) की अनुमति प्रदान नहीं करती। इसमें जन्म के अनुसार प्रस्थिति अथवा श्रेणी निर्धारित होती है, जो व्यक्ति के व्यवसाय, विवाह और सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती है।
जाति एक इकाई (समूह) व्यवस्था दोनों ही रूप में प्रयोग होती है। इकाई के रूप में जाति एक ‘बंद-क्रम (closed) प्रस्थिति समूह’ होती है, अर्थात् एक ऐसा समूह जिसमें सदस्यों की प्रस्थिति, उनका पेशा, जीवनसाथी के चयन का क्षेत्र, तथा दूसरों के साथ अंतर्क्रिया आदि निश्चित होते हैं। व्यवस्था के रूप में, जाति का अर्थ ‘प्रतिबंधों की सामूहिकता (collectivity) से होता है, जैसे सदस्यता परिवर्तन, व्यवसाय, विवाह और सहभोज तथा सामाजिक संबंध आदि पर प्रतिबंध। इस संदर्भ में एक पूर्वधारणा यह है कि कोई भी जाति पृथक नहीं रह सकती अथवा प्रत्येक जाति दूसरी जातियों से आर्थिक, राजनैतिक और संस्कार संबंधों (ritualistic relations) के जाल में जुड़ी हुई है।”
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 33)
वैदिक काल में जाति व्यवस्था (1500ई०पू०-322ई०पू०)
यदि हम वैदिक काल में जाति व्यवस्था की बात करें तो हम देखते हैं कि वैदिक काल में उच्च या निम्न वर्ण जैसा कुछ नहीं था। समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया था – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। चारों वर्ण श्रम-विभाजन पर आधारित थे। प्रत्येक वर्ण के सदस्य अलग-अलग कार्य करते थे। क्रमशः ब्राह्मण – पुजारी का कार्य, क्षत्रिय – शासन व योद्धा का, वैश्य – व्यापार का और शूद्र – सेवा का कार्य करते थे। ये सभी वर्ण भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते थे, लेकिन सह-भोज या सामाजिक संबंधों या एक वर्ण से दूसरे वर्ण में परिवर्तन पर कोई प्रतिबंध नहीं था।
तदोपरांत जैसे-जैसे हम वैदिक काल से ब्राह्मण काल (230ई०पू०-700ई०) तक चलते हैं, तो ये चारों वर्ण श्रेणीक्रम में व्यवस्थित होते चले गए और ब्राह्मण सर्वोच्च शिखर पर रहे। एक दृष्टिकोण के अनुसार वर्ण का अर्थ होता है – रंग, और मुझे लगता है शायद इसीलिए समाज का विभाजन गोरे और काले रंग के आधार पर हो गया।
वर्णों की उत्पत्ति की तरह ही जातियों की उत्पत्ति भी रिजले, घूर्ये, मजूमदार आदि जैसे विद्वानों द्वारा प्रजातीय अर्थों में व्याख्या की गई है, किन्तु यह नहीं कहा जाता है कि जातियाँ, वर्णों के उपभाग हैं। जातियों की उत्पत्ति का वर्ण से कोई संबंध नहीं है। जातियों का श्रेणीक्रम और जाति की गतिशीलता वर्ण के संदर्भ में ही प्रयोग होने लगी।
इस प्रकार वर्ण ने एक ऐसी रूपरेखा को प्रस्तुत कर दिया, जिसमें जाति के प्रति सभी भारतीय विचार और सभी प्रतिक्रियाएँ उसी में सम्मिलित हो गई। श्रीनिवास ने (1962:69) भी यह कहा है कि – “ वर्ण ने एक सामान्य सामाजिक भाषा प्रदान की है, जो सम्पूर्ण भारत के लिए सही है। अर्थात् इसने एक बहुत ही सरल, सहज और स्पष्ट योजना प्रदान करके सामान्य स्त्री-पुरुषों को जाति प्रथा समझने और अपनाने के योग्य बना दिया। जो भारत के सभी भागों में लागू है। उसने यह भी माना है कि वर्ण व्यवस्था का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसने अखिल भारतीय स्तर पर एक ढाँचा प्रदान किया है, जिसमें निम्न जातियों ने सदैव उच्च जातियों के रीति-रिवाजों को अपनाकर अपनी प्रस्थिति को ऊँचा करने का प्रयत्न किया है। इससे समस्त हिन्दू समाज में समान संस्कृति के विस्तार में सहायता मिली है।”
जाति व्यवस्था से प्रचलन से संबद्ध दो विचार हैं। एक सम्प्रदाय (Hang, 1863, Kern, N.K.Dutt and Apte 1940, B.R. Kabke, 1979) का मानना है कि जाति व्यवस्था पहले से ही विद्यमान थी और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जाति के तीन भाग थे, जिन्हें ऋग्वेद काल के समाज ने स्पष्ट मान्यता प्रदान की थी। परंतु शुद्र जाति विद्यमान नहीं थी।
दूसरा सम्प्रदाय (Weler, 1882 और Ghurye,1932) मानता है कि ये तीन जातियाँ नहीं वरन वर्ण थे, जो अनुवांशिक न होकर लचीले थे। ब्राह्मण काल में, जो ब्राह्मण और उपनिषदों के बाद का काल था, चार वर्णों की श्रेणीक्रम व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी और आगे आने वाले समय में भी चलती रही। यद्यपि ब्राह्मण और क्षत्रिय एक-दूसरे पर श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए परस्पर संघर्षरत रहे लेकिन क्षत्रियों ने वैश्यों तथा शूद्रों के ऊपर अपनी शक्ति बढ़ा ली।
रामायण और महाभारत काल के पिछड़े भाग में पुजारी कार्य आनुवंशिक हो गया और अपरिहार्य रूप से ब्राह्मणों ने रक्त की पवित्रता और अन्य लोगों पर अपनी श्रेष्ठता प्राप्त करने पर ध्यान देना शुरू कर दिया।
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 37)
उन्होंने गृहसूत्र (700ई०पू०-300ई०पू०) तथा धर्मसूत्र (600ई०पू०-300ई०पू०) के माध्यम से सामाजिक व्यवहार और संबंधों की संहिता बना दी। अतः यह कहा जा सकता है कि जाति प्रथा का प्रारंभ-बिंदु परावैदिक काल (800ई०पू०-500ई०पू०) और महाकाव्य (रामायण-महाभारत) काल (500ई०पू०-200ई०पू०) था। क्योंकि सामाजिक स्तरीकरण का आधार श्रम-विभाजन था, इसलिए अपने मौलिक स्वरूप में यह जाति व्यवस्था की अपेक्षा वर्ग व्यवस्था अधिक थी। प्रजाति कारक, व्यावसायिक पूर्वाग्रह, कर्म का दर्शन, शुद्धता और अशुद्धता की धार्मिक अवधारणा सभी ने जाति व्यवस्था की रचना में योगदान दिया।
वर्तमान में भारत में जाति व्यवस्था
वर्तमान भारत में जाति व्यवस्था इस प्रकार व्यवस्थित है कि सन् 1947 में देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के बाद, औद्योगीकरण और नगरीकरण के अलावा अन्य कारणों ने भी जाति व्यवस्था को प्रभावित किया था। जैसे – अनेक सामाजिक कानूनों का लागू होना, शिक्षा का विस्तार, सामाजिक-धार्मिक सुधार और आधुनिक पेशों का विकास, पश्चिमीकरण, आन्दोलम, स्थान गतिशीलता औए बाजार अर्थव्यवस्था का विकास।
वर्तमान में जाति की कार्यप्रणाली के बारे में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले का सकते हैं –
1- जाति व्यवस्था समाप्त होने की प्रक्रिया में नहीं है, बल्कि आधुनिक परिवर्तनों के साथ पर्याप्त सामंजस्य कर रही है।
2- जाति का धार्मिक आधार टूट गया है।
3- अलग-अलग प्रकार के प्रतिबन्ध लगाने की पुरानी सामाजिक प्रथाएँ समाप्त हो गईं हैं। जाति अब नवीन मूल्यों वाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती।
4- अब जाति व्यक्ति के पेशेवर जीवन को निर्धारित नहीं करती यद्यपि उसकी सामाजिक प्रस्थति आज भी उसकी जातीय सदस्यता पर निर्भर है।
5- आज भी समाज में पिछड़ी जाति / दलितों को समानता प्रदान करने के लिए गम्भीर प्रयत्न किये जा रहे हैं।
6- गॉंवों में यजमानी प्रथा भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इससे अन्तर्जातीय संबंधों पर प्रभाव पड़ा है।
7 जातिवाद में बढ़ोतरी हुई है।
8- अन्तजातीय संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं, परंतु यह संघर्ष सांस्कारिक प्रस्थिति के आधार की अपेक्षा शक्ति अर्जित करने के लिए अधिक हैं।
9- वर्तमान समय में हम देख रहे हैं कि जाति और राजनीति एक-दूसरे को बहुत ज्यादा प्रभावित कर रही है।
10- एक ओर हम देखते हैं कि कुछ जातियों के संगठन मजबूत हुए हैं, तो दूसरी ओर अधिकतर जातियों ने अपनी सामूहिक एकता खो दी है और उत्तरदायित्व की भावना का ह्रास हुआ है।
11- अब गॉंवों में किसी जाति का वर्चस्व अब उसकी धार्मिक प्रस्थिति पर निर्भर नहीं करता।
जाति व्यवस्था और सामाजिक स्तरीकरण
जाति व्यवस्था और सामाजिक स्तरीकरण की विवेचना करते हुए राम आहूजा लिखते हैं कि “समाज इस प्रकार श्रेणीक्रम समूहों में विभाजित है कि यद्यपि विविध समूह परस्पर संबंधों में असमान समझे जाते हैं लेकिन एक ही समूह के सदस्य समान माने जाते हैं। सामाजिक स्तरीकरण के दो प्रमुख आधार जाति और वर्ग हैं, लेकिन कुछ अन्य मान्य आधार आयु, लिंग, प्रजातीय / नृजातीय भी हैं। सामाजिक स्तरीकरण सामाजिक विभेदीकरण से भिन्न है। विभेदीकरण व्यापक अर्थ में प्रयोग होता है। क्योंकि यह तुलना के उद्देश्य से व्यक्तियों और समूहों को एक-दूसरे से अलग और स्पष्ट करता है।”¹
जाति व्यवस्था में परिवर्तन
जाति व्यवस्था अब बहुत तेजी से बदल रही है। और साथ ही साथ कमजोर हो रही है। यद्यपि यह समाप्त नहीं हो रही है। परंतु जाति व्यवस्था इतनी तेजी से भी नहीं बदली है। इसमें परिवर्तन धीमी गति से हो रहा है।
डी० एन० मजूमदार ने ‘कैसे जाति प्रथा तेजी से है’ की व्याख्या करते हुए जातियों के विलय और विखण्डन और जनजातियों के एकीकरण का संदर्भ दिया। कुप्पूस्वामी (देखें, Sociological Bulletin, September 1962) और कालीप्रसाद (Social integration Research: A Study in Inter-caste Relationship, Lucknow University, Lucknow, 1954: 3) ने भी जाति व्यवस्था में कुछ परिवर्तनों का संकेत दिया था।
कालीप्रसाद के अपने निष्कर्ष ने कि 90 प्रतिशत उच्च जाति के लोगों ने निम्न जाति के लोगों को भोजन में अपना साथी स्वीकार कर लिया है। उसे यह कहने के लिए मार्ग प्रशस्त किया कि जाति विखंडन अब तेजी से समाप्त हो रहा है।
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 33)
मैक्स वेबर का विचार था कि सभी जाति सम्बन्ध छिन्न-भिन्न हो गए हैं और बुद्धिजीवी विशिष्ट राष्ट्रवाद के अधिकर्त्ता हो गए हैं। आर० के० मुखर्जी ने कहा है कि जाति प्रथा के आर्थिक पक्ष (व्यावसायिक विशिष्टीकरण में परिवर्तन) और सामाजिक पक्ष (उच्च जातियों के रीति-रिवाजों को ग्रहण करना, अपवित्र / अशुद्ध पेशों का त्याग) बहुत बदल गए हैं।
उसने कहा यह परिवर्तन शहरी क्षेत्रों में विशेष हैं। जहाँ सामाजिक मेल-जोल और जाति सहभोज आदि के नियम अधिक ढीले पड़ गए हैं और निम्न जातियों की सामाजिक और धार्मिक निर्योग्यताएं समाप्त कर दी गईं हैं।
ए० आर० देसाई और दामले ने कहा है कि – “जाति व्यवस्था के लक्षणों में परिवर्तन की विस्तृतता इतनी महान नहीं है, जितनी समझी जाती है। इन परिवर्तनों ने समूची जाति व्यवस्था के आवश्यक लक्षणों को प्रभावित नहीं किया है।”¹
ऐसा लगता है कि जाति व्यवस्था ने अपनी कुछ विशेषताओं को हटा दिया है। उसने कहा कि अब जाति व्यक्ति के पेशे को निर्धारित नहीं करती लेकिन पुरानी व्यवस्था का अनुसरण करते हुए विवाह व्यवस्था में वही भावना आज भी जारी है।
व्यक्ति को जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर अब भी जाति की सहायता पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जैसे – विवाह और मृत्यु आदि, परंतु अब आधुनिक युग है तो आज का युवा वर्ग यहाँ भी जाति को विशेष महत्त्व नहीं दे रहा है। युवा अपनी पसंद से दूसरी जाति के लड़का / लड़की से विवाह कर रहे हैं। क्योंकि उनका कहना है कि विवाह जाति अनुसार नहीं हमारी सोच के मिलने और दोनों के प्रेम अनुसार होना चाहिए।
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 47)
वहीं, दूसरी तरफ जाति न्याय करने वाली इकाई के रूप में अब काम नहीं करती फिर भी व्यक्ति पर इसकी पकड़ कम नहीं हुई है। हमारे भारतीय संस्कार आज भी लोग मानते हैं और भारतीय संस्कृति को मानने वाले प्रत्येक सदस्य का विश्वास है कि सामाजिक जीवन में जाति व्यवस्था की ताकत अभी तक हमेशा की तरह मजबूत है।
जाति व्यवस्था का भविष्य
भारत में जाति व्यवस्था की पकड़ ढीली होने के कोई ऐसे संकेत नहीं हैं। परिवर्तन केवल विभिन्न जातियों द्वारा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा ऊपर उठने के रुख में आया है। जाति व्यवस्था में परिवर्तन निरंतर और निर्यागत रूप से हो रहे हैं। लेकिन जाति व्यवस्था अटूट बनी हुई है। विभिन्न जातियों में एक प्रकार की वर्ग चेतना प्रवेश कर रही है। अंतःसमूह की भावना से प्रभावित होकर जातियाँ अपनी व्यवस्था को अधिक दृढ़ता से पकड़े रहना चाहती हैं।
आजकल जातियाँ स्वयं को राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों के लिए संगठित होने का प्रयास कर रहीं हैं। चुनाव जातिगत आधार पर लड़े जाते हैं। अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा, अखिल भारतीय कुशवाहा महासभा, अखिल भारतीय माथुर संघ आदि जाति संगठन विकसित हो गए हैं।
जाति व्यवस्था के भविष्य के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण रखने वाले तीन प्रकार के प्रगतिशील हिन्दू मिलते हैं –
1- ऐसे लोग जो जाति को अहितकारी समझते हैं और चाहते हैं कि यह समाप्त हो जानी चाहिए।
2- ऐसे लोग जो सोचते हैं कि जाति व्यवस्था का पतन हो गया है। वे चाहते हैं कि परंपरागत चारों व्यवस्थाओं की पुनर्स्थापना के प्रयास होने चाहिए।
3- ऐसे लोग जो चाहते हैं कि जाति व्यवस्था जारी रहे लेकिन इसकी पुनर्स्थापना बिल्कुल भिन्न स्थितियों में हो। ये लोग सांस्कृतिक एकता वाली और आर्थिक समानता वाली भिन्न उपजातियों को मिला देना चाहते हैं।
वर्तमान में लोगो का मानना है कि जितनी जल्दी जाति व्यवस्था की मृत्यु की घण्टी बजे, उतने ही ऊँचे हमारी प्रगति के अवसर हो जायेंगे। फिर भी यह एक सत्य है कि इस व्यवस्था को समाप्त करना इतना सरल नहीं है।