Bela Ka Vivah – Kathanak दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान की पुत्री बेला जब बेला के यौवन का जब सखियों ने एहसास दिलाया तो माता अगवां ने पति पृथ्वीराज से वर ढूँढ़ने का आग्रह किया। उस काल में क्षत्रियों के रीति-रिवाज इतिहास की भारी गलतियाँ थीं। राजाओं में मिथ्याभिमान और झूठी शान दिखाने की प्रवृत्ति ज्यादा थी। उस समय के राजाओं में जितना शारीरिक बल तथा युद्ध-कौशल था, यदि वे सब राष्ट्रीय एकता-अखंडता और एकात्मता पर ध्यान देते तो आज भारत सबसे शक्तिमान देश होता।
दिल्ली की लड़ाई-बेला का विवाह
महाराज पृथ्वीराज ने बेटी बेला का वर खोजने के लिए क्या किया तथा क्या लिखा? उन्होंने अपने पुत्र के साथ चार साथी और एक पंडित को भेजा। अस्सी हाथी, साठ पालकी, एक हजार घोड़े और तीन लाख का सामान टीका स्वीकार करने वाले को देने के लिए तय किया, साथ में एक पत्र भी था, जिसमें लिखा था “पहला युद्ध तो द्वार पर होगा। इसके बाद मंडप में भाँवर पड़ते के समय करा जाएगा। भाँवर के बाद कलेवा (नास्ता) करने को दूल्हा अकेला ही अंदर जाएगा, वहाँ उसका सिर काट लिया जाएगा। लड़के में हिम्मत हो तो स्वयं को बचा लेगा अन्यथा मारा जाएगा।”
पुत्र ताहर टीके का सामान लेकर कई राजाओं के पास गया। किसी ने टीका स्वीकार नहीं किया। चार मास तक घूमकर कोई भी वर नहीं मिला। फिर ये लोग उरई नरेश माहिल के घर गए। माहिल ने समस्या सुनी तो सलाह तुरंत दी। “कन्नौज के राजा अजय पाल के पुत्र रतिभान के पुत्र लाखन का तिलक कर दो। वह सब प्रकार से योग्य है। बस महोबा मत जाना, क्योंकि बनाफर गोत्र राजपूतों से नीचा है।”
ताहर रिश्ता लेकर कन्नौज भी पहुँचा, परंतु रतिभान ने टीका स्वीकार नहीं किया। वे माहिल के पास से लौट रहे थे तो रास्ते में मलखान मिल गए। जब उन्होंने बताया कि चार महीने से घूमने पर भी हमारा काम नहीं बना, तो मलखान ने महोबा चलकर राजा परिमाल के पुत्र ब्रह्मानंद को टीका चढ़ाने का निमंत्रण दिया।
ताहर सब जगह से निराश हो गया था, अतः महोबा चला गया। मलखान ने ताहर की ओर से वकालत की। राजा परिमाल ने साफ मना कर दिया। मलखान ने अधिक जोर दिया तो परिमाल ने उसे रानी मल्हना से स्वीकृति लेने को कहा। मल्हना ने भी असहमति जताई। भला पुत्र की जान की कीमत पर बहू पाने की इच्छा किसी माँ की कैसे हो सकती है?
मलखान अभी माता पर अपनी बात मनवाने का दबाव डाल ही रहे थे कि ऊदल भी वहाँ आ पहुँचे। जब टीका स्वीकार करने या लौटाने का प्रश्न उठा तो ऊदल ने कहा कि टीका वापस जाना हमारी शान के विरुद्ध है। माँ ने जब देख लिया कि दोनों भाई मानेंगे नहीं तो बोली, “जैसा तुम चाहो, कर लो, पर आल्हा से अनुमति जरूर ले लो।” विवश होकर परिमाल ने भी लड़कों की हाँ में हाँ मिलाई। टीका चढ़ाया गया। ताहर को सारे नगर में सामान सहित घुमाया गया। नगर को सजाया गया। नगर की शोभा देखकर ताहर, चौंडा पंडित, नाई, भाट और नेगी सबकी आँखें चौंधिया गई।
माहिल को पता लगा कि महोबा में टीका चढ़ गया तो वह चुगली लगाने दिल्ली जा पहुंचा। पृथ्वीराज से जाकर कहा कि तुम्हारे लोग महोबा में टीका चढ़ा आए। बनाफर गोत्र ओछा (नीचा) है। वहाँ से रिश्ता हो भी गया तो चौहानों की नाक कट जाएगी। आप कहो कि बरात बाद में आ जाएगी, पहले दूल्हा ब्रह्मानंद को भेज दो। मैं स्वयं उसे लाऊँगा। बस उसको मार देंगे।
पृथ्वीराज को यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगा, परंतु माहिल अपनी बहन मल्हना के पास पहुँचा और बताया कि चौहानों का यही रिवाज है। बहन ने भाई का विश्वास किया और पुत्र ब्रह्मा को माहिल के साथ भेज दिया। जब मलखान को पता लगा कि ब्रह्मानंद को माहिल ले गया तो सुलिखे को तुरंत पीछे भेजा और उसे पकड़ने को कहा। ब्रह्मा तो मामा पर विश्वास कर रहा था। सुलिखे ने जाकर माहिल को पकड़ लिया और सिरसा लाकर फाटक से बाँध दिया।
बरात लेकर आल्हा-ऊदल सिरसा होते हुए चले, वहाँ से मलखान की सेना भी साथ होनी थी। आल्हा ने माहिल मामा को छुड़वाया और फिर बरात में साथ ले लिया। दिल्ली से पाँच कोस पहले बरात ने डेरा डाल दिया। आल्हा ने रूपन वारी को बुलाया और पत्र के साथ रूपन वारी को दरबार भेजा। रूपन दिल्लीपति के दरबार पहुँचा। द्वारपाल ने पूछा, “कौन हो, कहाँ से आए हो?” रूपन ने कहा, “महोबा से आया हूँ। बरात की पहुँच की सूचना लाया हूँ। मेरा नेग जल्दी दिलवा दो।”
द्वारपाल ने ज्यों का त्यों जाकर राजा पृथ्वीराज को बता दिया। पृथ्वीराज ने कहा कि वारी का स्वागत तलवार से किया जाए। रूपन तो नेग में ही तलवार माँग रहा था। अकेले रूपन ने तीन घंटे तलवारों का मुकाबला किया और फिर अपना घोड़ा दौडाकर सही-सलामत अपने लश्कर में पहँच गया। उसे रक्त में सना देखकर राजा परिमाल ने उसका हाल पछा। ऊदल ने भी प्रेम से पूछा, “पहला अनुभव कैसा रहा?” रूपन ने बताया कि दो हजार क्षत्रियों ने घेर लिया था। सबको नाको चने चबवाकर आपके पास वापस आ गया हूँ।
मामा माहिल ने तब ऊदल से कहा कि अभी दिल्ली में जाकर बात करता हूँ। जल्दी से द्वार के नेगाचार करके भाँवरी डलवा दे। माहिल अपनी लिली घोड़ी पर चढ़कर दिल्ली में पृथ्वीराज के दरबार में जा पहुँचा। राजा ने उसको चौकी पर बिठाया और हाल पूछा। माहिल तो बना ही परस्पर लड़वाने, मरवाने के लिए था।
चौहान से बोला, “महोबावाले महान् वीर हैं, उनसे जीतना बहुत कठिन है। मेरी बात मानो तो शरबत में जहर घुलवा दो। द्वार पर ही स्वागत में शरबत भिजवा दो। पीते ही सब मर जाएँगे। इस प्रकार लाठी भी नहीं टूटेगी और साँप भी मर जाएगा।”
पृथ्वीराज की अक्ल भी मारी गई थी, उसने माहिल की बात मानकर शरबत में जहर मिलवा दिया। सूरज बेटे के साथ नेगी और कर्मचारी भेज दिए। राजा परिमाल के तंबू में पहुँचकर शरबत रख दिया। सबको बुलाकर शरबत बँटवाने को कहा। राजा परिमाल ने सब लड़कों बुलवाकर शरबत बाँटने को कहा तो छींक हो गई।
फिर ढेवा को बुलाकर पूछा गया। ढेवा ने कहा कि शरबत विषैला है। ऊदल ने तभी एक कुत्ते को शरबत पिलाकर देखा। कुछ ही पल में कुत्ता मर गया। तब सारा शरबत फिंकवा दिया गया। सूरज और नेगी चुपके से भाग आए तथा पृथ्वीराज को सब हाल सुनाया।
माहिल भी अपनी तरकीब की सफलता सुनने को अभी वहीं था। उसने दूसरी तरकीब सुझाई। फाटक के बाहर एक ऊँचा खंभा गाड़कर उस पर एक कलश टाँग दो। नीचे दो हाथी खड़े कर दो। महोबावाले जब द्वार पर आएँ तो उनसे कहो कि हमारा रिवाज है कि पहले इस कलश को उतारना पड़ेगा।
फिर फाटक में प्रवेश करना होगा। हाथियों को बताओ कि जो खंभे पर चढ़े, उसे उठाकर पटक दें। मूर्ख पृथ्वीराज ने माहिला की बात फिर से मान ली। ऐसा ही प्रबंध कर दिया गया। उधर बरात चलने को तैयार हो गई। एक-एक हाथी पर चार-चार लड़ाके बैठ गए।
तोपें सज गई। घुड़सवार तैयार हुए। ब्रह्मानंद की पालकी के बाएँ ऊदल और दाएँ वीर मलखान अपने-अपने घोड़ों पर चल रहे थे। पीछेवाली पालकी में राजा परिमाल और साथ में आल्हा चले। द्वार पर पहुँचे तो द्वार पर दो हाथी खड़े थे। लड़का पक्षवालों को शर्त बताई गई। हाथी हराकर कलश उतारोगे, तभी मंडप में प्रवेश होगा।
पृथ्वीराज चौहान समझ रहे थे कि महोबावालों की शान अब धूल में मिल जाएगी। उसे क्या मालूम था कि कलियुग में ये पांडवों के अवतार हैं। ऊदल भीम है और मलखान सहदेव। जिसे दूल्हा बनाकर लाया गया है, वह स्वयं अर्जुन है। आल्हा ही धर्मराज युधिष्ठिर है और लाखन नकुल है। पृथ्वीराज को तो यह भी नहीं मालूम था कि उसकी अपनी बेटी ‘बेला’ भी द्रौपदी ही है। बरात दरवाजे पर पहुंची। चौहान ने अपनी शर्त बता दी।
मलखान ने हाथी का दाँत पकड़ा और घुमाकर जमीन पर पटक दिया। दूसरे हाथी की सूंड़ पकड़कर ऊदल ने हाथी को घुमाकर दूर फेंक दिया। पृथ्वीराज ने दाँतों तले अंगुली दबा ली, फिर बरात के मंडप में प्रवेश करने से पूर्व ब्रह्मानंद की चौकी सजाई गई। पंडित ने वेदी सजाकर पूजा का काम शुरू कर दिया। महिलाएँ मंगलाचार गाने लगीं।
फाटक पर कलश उतारने के लिए जगनिक खंभे पर चढ़ने लगा। पृथ्वीराज के पुत्र ताहर ने कमलापति को आदेश दिया, कमलापति ताहर से भिड़ गया। जगनिक और कमलापति दोनों परस्पर भिड़ गए। तीन बार जगनिक चोट बचा गए।
जब जगनिक ने तलवार मारी तो कमलापति की ढाल कट गई। चाँदी के फूल भी गिर गए। पेट पर घाव लगा और कमलापति धराशायी हो गए। ताहर ने फिर रहिमत-सहिमत को भेजा। तब ऊदल ने मन्ना गूजर को बुलवाया। ढेवा भैया को भी इशारा कर दिया। दोनों ओर से तलवारें खटाखट चलने लगीं।
रहमतसहमत भाग गए, तब ताहर ने तोपों को बत्ती लगवा दी। पृथ्वीराज के सातों बेटे (ताहर, गोपी, सूरज, चंदन, सदन, मदन और पारथ) भी तलवार चलाने लगे। दोनों ओर के जवान कट-कटकर गिरने लगे। तब तक ऊदल खंभे पर चढ़ गए और कलश को उतार लिया।
अब तो शर्त पूरी हो गई। मंडप में महोबावाले प्रवेश कर गए। माहिल मामा फिर चुगली करने पृथ्वीराज चौहान के पास पहुँच गया; बोला, “महोबावालों से कहो कि समधौरा पहले करना होगा, फिर ब्याह करना होगा।” ऊदल ने राजा परिमाल से जाकर कहा। परिमाल राय पालकी पर सवार होकर आए।
समधौरा का अर्थ है ‘समधियों का मिलन’। समधी अथात् वर के पिता और कन्या के पिता की भेंट है समधौरा। पृथ्वीराज के मुकाबले राजा परिमाल बूढ़े थे। शस्त्र भी त्याग चुके थे। इसलिए उन्होंने ऊदल से कहा कि कोई धोखा न हो जाए। ऊदल और मलखान ने तब आल्हा से कहा कि समधौरा आप करें, क्योंकि बड़ा भाई भी पिता समान ही होता है।
इस प्रकार आल्हा तैयार होकर अपने पंचशावद हाथी पर सवार हो गए। ऊदल अपने वैदुल घोड़े पर और मलखान अपनी घोड़ी कबूतरी पर सवार हो गए। द्वार पर पृथ्वीराज से मिलनी करनी थी। नीचे उतरकर आल्हा और राजा पृथ्वीराज आपस में गले मिले। पृथ्वी ने छाती मिलाते ही जान लिया कि देव कुँवरि के पुत्र सचमुच महाबली हैं।
उन्होंने कहा, जो भी आभूषण चढ़ाने को लाए हैं, वे सब दे दो, ताकि भाँवर का कार्य शुरू किया जा सके। फिर मलखान ने गहनों का डिब्बा और कपड़े महल में भेजने के लिए रूपन वारी को बुलवाया। उसे गहनों का डिब्बा और कपड़े सब दे दिए। रूपन लेकर चला गया।
दुलहन बेला को बुलवाया गया। गहनों को जाँच करते बेला नाराज हुई। रूपन से बोली, “ये सब गहने-कपड़े कलियुग के हैं। उनसे कहना, द्वापरवाले गहने-कपड़े भेजें। यह बात आल्हा से कहना।” रूपन सब सामान वापस लेकर आ गया। आल्हा से सारी बात बता दी। आल्हा ने तब झारखंड के मंदिर में माँ जगदंबा का यज्ञ किया और अपना सिर चढ़ाने लगा तो देवी ने दर्शन दिए और समस्या बताने को कहा। आल्हा ने सारी कथा सुना दी। देवी ने आल्हा से कहा-तुम यहीं बैठो, मैं इंद्रलोक जाकर पता करती हूँ।
इंद्रदेव ने वासुकि नाग को द्वापरवाले गहने-कपड़े लाने को कहा। वासुकि थोड़ी देर बाद द्रौपदीवाले गहने-कपड़े ले आए। इंद्र ने ये देवी को दिए और देवी दुर्गा ने लाकर आल्हा को दिए। आल्हा उन्हें लेकर लश्कर में आए तथा द्वापरवाली चूड़ियाँ और चुनरी रूपना के हाथ फिर रंगमहल में भिजवा दिए। उन गहनों, चूडियों और चुनरी को देखकर बेला बहुत प्रसन्न हुई। उसे पता था कि वह ही द्रौपदी है और आल्हा युधिष्ठिर हैं। सारे पांडव वही हैं। सब काम हँसी-खुशी निपट सकता था, परंतु माहिल फिर पिथैरा राय के पास जा पहुँचा। वह काम बिगड़वाना ही चाहता था।
माहिल ने कहा, “जितने महोबावाले घर-घर के हैं, उन सबको बुलवा लो। इधर कमरों में हथियारबंद राजपूतों को छिपा दो। सबको मंडप में बिठाकर सिर कटवा लो। अब क्या था, मोती के हाथ सूचना आल्हा के पास भेज दी। ऊदल ने लश्कर तैयार करना चाहा तो मोती ने कहा कि रिवाज यह है कि केवल घरौआ ही जाएँगे। फिर तो घर परिवार के लोग ही तैयार हुए और अपने शस्त्र लेकर चल पड़े। ब्रह्मानंद पालकी में गए थे। मंडप में पंडित तैयार थे। अक्षत (चावल) फेंककर वर का स्वागत किया और चौकी पर बैठाया। बेला (कन्या) से गठबंधन करवाया और हवन प्रारंभ कर दिया।
मंडप में भी युद्ध होना जरूरी था। तिलक की चिट्ठी में ही खुलासा कर दिया था। भाँवर पड़नी शुरू हुई तो सूरज ने ब्रह्मानंद पर तलवार से वार कर दिया। जगनिक ने तुरंत अपनी ढाल अड़ा दी। फेरा पूरा हो गया। दूसरा फेरा पड़ने लगा तो पृथ्वीराज के दूसरे पुत्र चंदन ने चतुराई से वार किया। दूसरे वार को देवपाल (ढेवा) ने बचा लिया। तीसरी भाँवर शरू हई तो मरदन ने तलवार घमाई। मन्ना गूजर ने उस चोट को अपनी ढाल अडाकर नाकाम कर दिया।
चौथी भाँवर पर सरदन ने वीरता से कटार मारी तो जोगा वीर ने वार ओट लिया। पाँचवें फेरे पर बेला के भाई गोपी ने हाथ आजमाया तो भोगा आगे अड़ गया। छठवीं भाँवर पर पारथ ने खांडा चलाया तो स्वयं ऊदल ने अपनी ढाल पर रोका। सातवें फेरे पर ताहर भाई ने ब्रह्मानंद पर चोट करी तो वीर मलखान ने सँभाल ली। इतनी बाधाओं के होते हुए भी सातों भाँवर पूरी हो गई।
आखिर चुगलखोर माहिल की सिखावन का उपाय भी सामने आ गया। कमरों में छिपे हथियारबंद सैनिकों ने हल्ला बोल दिया। महोबावाले भी सोए हुए नहीं थे। दोनों ओर से खटाखट तलवारें चलने लगीं। महोबावाले परिवार के भाइयों ने दो हजार सैनिकों को मारकर भगा दिया। खून में सब लथपथ हो गए, यहाँ तक कि बेला के वस्त्र भी खून में भीग गए। बेला के सातों भाई इन वीरों ने बाँध लिये। पृथ्वीराज के पास समाचार पहुँचा तो वह भी घबरा गया। माहिल की बताई सब तरकीब विफल हो गई।
चौंडा पंडित ने पृथ्वीराज को बताया कि उदयसिंह राय (ऊदल) ही सबसे बड़ा वीर है। मैं अभी उसका इलाज करता हूँ। चौंडा पंडित को द्रोणाचार्य का अवतार कहा गया है। वह युद्ध की हर कला में माहिर (कुशल) था। मंडप में पहुँचकर चौंडा पंडित ने महोबा के वीरों की सराहना करते हुए आल्हा से विनती की कि सातों भाइयों को खोल दे। तुमने हर मोरचे पर विजय प्राप्त कर ली है। जो छोटमोटे नेग बाकी रह गए हैं, उन्हें जल्दी से निपटाओ। आल्हा ने तुरंत सातों भाइयों को छुड़वा दिया।
तभी नाइन ने आकर कहा, “वर (ब्रह्मानंद) को अब भीतर भेज दो। कलेवा (नाश्ता) करके रस्म पूरी करें।” पर नाइन (बाँदी) ने कहा, “महल में अकेला लड़का ही जाएगा।” ऊदल बोले, “हमारे यहाँ वर अकेला नहीं भेजा जाता, उसके साथ घरवाला जरूर जाता है।” ब्रह्मानंद के साथ ऊदल भी कलेवा करने महलों में गए।
चौंडा राय ने महलों में जाकर षड्यंत्र का शेष भाग पूरा किया। वह लहँगा-ओढ़ना पहना और चूड़ी-चोली पहनकर घूघट निकालकर महिलाओं में मिल गया। दुष्ट ने कमर में एक जहर-बुझी छुरी छिपाकर रखी। महिलाओं को भी इस षड्यंत्र का पता न चला।
अगमा रानी ने ब्रह्मानंद और ऊदल के लिए जैसे ही थाल परोसकर रखे, पहला कौर (टुकड़ा) लेते ही चौंडा ने ऊदल के पेट में जहरीली छुरी मार दी। ऊदल विष के प्रभाव से मूर्च्छित हो गया। महिलाएँ रोने लगीं, यहाँ तक कि अगमा रानी भी रोने लगी। चौंडा राय तो तुरंत भागा और कपड़े बदल लिये। किसी के वश में ऊदल की संभाल नहीं थी।
अगमा ने चौंडा को भला-बुरा कहा। ऊदल के रूप और बलवान शरीर को देखकर अगमा को दिवला माँ की पीड़ा की अनुभूति होने लगी। वह और ज्यादा रोने लगी। बेला ने माँ से रोने का कारण पूछा। माता अगमा ने चौंडा पंडित की करतूत बयान कर दी। बेला ने तब ऊदल की छुरी के घाव पर अपनी अंगुली का खून गिराया तो घाव ठीक हो गया।
फिर तो ब्रह्मानंद और ऊदल, दोनों अपने लश्कर में लौट गए। राजा परिमाल ने कहा कि अब जल्दी से महोबा लौटने की तैयारी करो। रूपन को भेजकर पृथ्वीराज को संदेश भेजा कि तुरंत विदा करने का प्रबंध करें। पृथ्वीराज ने कहा, “हमारे यहाँ गौने को ही कन्या विदा की जाती है। आप बरात लेकर लौट जाएँ। अगले वर्ष गौना करके बहू ले जाएँ।” रूपन ने लश्कर में जाकर राजा परिमाल को यह बात बताई। फिर से आल्हा का आदेश हो गया। अपने तंबू उखाड़ लिये और महोबा के लिए चल पड़े।
महोबा में पहुँचने की सूचना देने फिर रूपन को पहले ही रवाना कर दिया। माता मल्हना तो प्रतीक्षा ही कर रही थी। रूपन से समाचार सुनकर पहले तो उसे उपहार दिए। फिर स्वागत की तैयारी करवाई। महिलाएँ मंगल गीत गाने लगीं। ब्रह्मानंद की पालकी द्वार पर आई तो उन्हें उतारा गया। आरती उतारी गई। आल्हा, ऊदल, मलखान, ब्रह्मा आदि सभी भाइयों ने माताओं (मल्हना, दिवला, तिलका) के चरण छूकर आशीर्वाद लिया। इस प्रकार ब्रह्मानंद (अर्जुन) का बेला (द्रौपदी) से विवाह संपन्न हुआ।