Bade Sab बड़े साब

प्लेटफार्म पर चहल-कदमी करते एक घंटे से ज्यादा लोग समय व्यतीत हो चुका था। साबरमती एक्सप्रेस सही समय से आ रही थी, पर अब लेट हो रही है। ट्रेन पिछले आधे घंटे से आउटर सिग्नल पर अटकी पड़ी है। इस बीच मुकेश की अपनी माँ से इस रविवार Bade Sab के अचानक बने प्रोग्राम के कारण गाँव न आ पाने की सूचना व माँ द्वारा दी गईं नसीहतों को अमल करने का आश्वासन देते हुए एक बार और साबरमती एक्सप्रेस के वातानुकूलित कंपार्टमेंट में बैठे अपने बड़े साब से दो बार मोबाइल फ़ोन पर बात हो चुकी थी।

ट्रेनों की आवाजाही को देखते हुए वह उकता रहा था। बड़े साहब ने कल रात ही उसे अपने आने की सूचना दी थी। ‘बड़े साब’ या ‘बड़े साहब’ Bade Sab यानि अधिशासी अभियंता। प्रमुख अभियंता के सामने भी अधिशासी अभियंता को ही विभाग के लोग बड़े साहब का संबोधन देते हैं। जैसे अधिशासी अभियंता के लिए ‘बड़े सा’ब’ का सम्बोधन पदनाम के साथ स्थाई रूप से पेटेंट हो चुका हो। लघु सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर मुकेश को इस शहर में आए अभी तीन माह भी नहीं बीता था। एक साल की नौकरी में उसकी यहाँ दूसरी पोस्टिंग थी। नई उम्र, नई नौकरी, नया उत्साह।

बड़े साहब के रहने खाने और पीने की व्यवस्था उसने अपने सरकारी आवास में ही बड़े साहब से पूछकर कर ली थी। अविवाहित मुकेश के लिए सरकारी आवास अकेले के लिए पर्याप्त बड़ा था। प्लेटफार्म पर एक बार पुनः साबरमती एक्सप्रेस के आगमन का एनाउंसमेंट प्लेटफार्म नंबर एक से चार पर आने की संशोधित सूचना के साथ हुआ।

मुकेश बड़े-बड़े डग भरते मिनटों में रेलवे पुल पार कर प्लेटफार्म नंबर एक से चार पर आ गया। जीने से उतरते उसकी निगाह प्लेटफार्म की बेंच पर परस्पर चुहल करते नवदंपत्ति पर पड़ी। ‘ईश्वर ने क्या शानदार जोड़ी बनाई है?’ बरबस मुकेश के मुँह से निकल गया। उसकी भी शादी की बातचीत जोरों पर चल रही थी। ‘काश! ऐसी ही जीवन-संगिनी उसे भी मिल जाए, सुंदर और आकर्षक’ मुकेश कुछ पल ठगा-सा उस अपूर्व सुंदरी, धानी साड़ी में सजी-धजी, पति पर रीझती नवयौवना को अपलक देखता रह गया।

पति पर मुग्ध होती ऐसी ही समर्पित धर्मपत्नी की कल्पना करता मुकेश दूसरी बेंच पर टेक लगाकर बैठ गया और उस नवयुवक के भाग्य की सराहना मन ही मन करने लगा, जिसे ऐसी अप्रतिम सुंदर, भारतीय नारी की सर्व सुलभ छवि वाली जीवनसंगिनी धर्मपत्नी के रूप में मिली थी।

मुकेश के कुछ पल ऊहा-पोह में गुजरे ही थे कि तभी प्लेटफार्म पर धड़धड़ाती साबरमती एक्सप्रेस ने अपनी आमद दर्ज कराई। मुकेश को अपना ध्यान नवदंपत्ति से मन मारकर हटाना पड़ा और एक भरपूर दृष्टि उन दोनों पर डालता हुआ वह सैकेंड एसी के कोच की ओर बढ़ लिया। बड़े साहब से वह दो-तीन बार पहले भी मिल चुका था। अतः उन्हें पहचानने जैसी कोई दिक्कत नहीं थी। हाथ में सूटकेस पकड़े ट्रेन से उतरते बड़े साहब मुकेश को दिख गए। वह लपक कर उनके पास पहुँच गया।

“गुड मॉर्निंग सर!” कहते मुकेश ने बड़े अदब से Bade Sab के हाथ से सूटकेस ले लिया। “आउटर में बड़ी देर लगा दी बोरिंग और सड़ी ट्रेन है। इसलिए मैं इसमें बड़ी मजबूरी में बैठता हूँ। यूपी भर तो पिटती-घिसटती  चलती है…. बताओ उम्मीद थी दो बजे तक तो पहुँच ही जाएगी, चार बजा दिए।” बड़े साहब बड़बड़ाते से घड़ी देखने लगे।

“अरे भाई श्रीवास्तव… उनको भी तो रिसीव करो वह भी मेरे साथ हैं।” “ओह सॉरी सर! ..…वेरी सॉरी सर!” मुकेश को स्वयं पर खीझ और गुस्सा एक साथ आया, ‘क्या ब्लंडर करने जा रहा था बड़े साहब की मैडम को नजरअंदाज करना कितनी बड़ी गुस्ताखी थी।’

“आइए मेम! सॉरी मेम!” कहते मुकेश ने मेम के हाथ से भी सूटकेस दूसरे हाथ में ले लिया और पास खड़े कुली को दोनों सूटकेस पकड़ाकर बड़े साहब व मेम को साथ लिए प्लेटफार्म से बाहर अपनी गाड़ी के पास आ गया। सर्वप्रथम उसने गाड़ी का पिछला दरवाजा खोलकर आदर के साथ बड़े साहब व मेम को कार की पिछली सीट पर बैठाया, फिर दोनों सूटकेस पीछे डिग्गी में रखवाए। कुली को पचास का नोट पकड़ाया और जल्दी से ड्राइविंग सीट पर बैठ कार स्टार्ट की।

गाड़ी चलाते मुकेश को विंडस्क्रीन पर मेम का ओज से दमकता सुंदर चेहरा दिख गया। वह सोचने लगा जैसे अभी-अभी प्लेटफार्म में दिखी नवविवाहिता उसी रूप लावण्य के साथ उम्र के कोई दसेक वर्ष बिता उसकी कार में आ बैठी हो। माथे पर लगी लाल बिंदी और मांग में भरा सिंदूर मेम की सुंदरता पर चार चाँद लगा रहा था। इस बार वह अपने प्रौढ़ बड़े साहब के भाग्य की सराहना मन ही मन कर उठा, ‘कितनी सुंदर और अपने से काफी कम उम्र की धर्मपत्नी उन्होंने पाई है।’

“श्रीवास्तव! तुम्हारी कार में ए.सी. नहीं है क्या?” ‘”है सर! सॉरी सर!” मुकेश ने कार का ए.सी. ऑन कर दिया और अपनी साइड के शीशे को चढ़ा लिया। नवंबर माह का दूसरा सप्ताह चल रहा था। मौसम में गर्मी न के बराबर थी। कार का ए.सी. न चलाए पखवारा बीत रहा था। फलस्वरूप उसने ए.सी. चलाने की आवश्यकता महसूस नहीं की थी। ‘बड़े लोग,बड़े शौक, बड़े मिजाज’ वह मन ही मन बुदबुदाया ।

“तुम्हारे आवास में गीजर तो लगा है न श्रीवास्तव?” “गीजर, नो सर अभी मुझे यहाँ आये तीन महीने ही हुए हैं सर!” मुकेश एकाएक पूछे प्रश्न से अकबका गया। “ओहो….. तो क्या ठंडे पानी से नहलाओगे?” “नो सर!  पानी गैस चूल्हे में गरम करवा दूँगा। सॉरी सर!” “कोई बात नहीं…’ बड़े साहब बीच में बोल पड़े..…’ इनके रहते हम ठंडे पानी से भी नहा लेंगे।” कहते-कहते बड़े साहब ने बड़ी बे-तकल्लुफ़ी के साथ मेम के कँधे के पीछे से अपना दायाँ हाथ डैने की तरह फैलाया और उन्हें अपने दाएं सीने से भींच लिया।

विंडस्क्रीन पर बड़े साहब की यह हरकत मुकेश को दिख गई, जो उसे नागवार लगी। विशेषकर बड़े साहब की हथेली जो मैडम की छाती पर… ‘अपनी धर्मपत्नी से अन्य की उपस्थिति में देख लिए जाने की आशंका को जानते हुए भी ऐसी छेड़खानी करना बड़े लोगों को भी शोभा नहीं देता है।’ मुकेश के मुँह का स्वाद कसैला हो उठा पर वह थूक भी नहीं सकता था। थूक गुटकते उसने मोड़ पार करते ही खाली सड़क पा कार के एक्सीलेटर पर अपने दाएं पैर का दबाव बढ़ा दिया।

अपने सरकारी आवास पर आते ही मुकेश ने कार का हॉर्न दो-तीन बार बजाया और कार का पिछला गेट खोल दिया, फिर कार के दूसरी ओर जाकर मैडम के पास वाला गेट भी खोल दिया । कार के हॉर्न की आवाज सुन अंदर से नंदू वहाँ आ गया । मुकेश ने नंदू को गाड़ी की डिग्गी से दोनों सूटकेस लाने को कहा और आदर के साथ बड़े साहब एवं मेम को ड्राइंग-रूम में लाकर बैठा दिया और स्वयं किचन में आ गया, जहाँ नंदू की धर्मपत्नी रेखा चाय का पानी गैस चूल्हे पर रख रही थी ।

“अरे रेखा! दूसरे चूल्हे पर पानी गरम करने रख देना। जलपान के बाद साहब लोग नहाएंगे।” मुकेश ने उतावलेपन से कहा। वह बड़े साहब की अच्छे से आवभगत करना चाहता था। उनकी सुविधाओं का पूरा-पूरा ध्यान रखना इस समय उसका पुनीत कर्तव्य था। उसे अपने पिता के कहे शब्द स्मरण हो आए, जो अक्सर उससे कहा करते थे, ‘बेटे! ईमानदारी से अपनी नौकरी करो और अपने इमीडिएट बॉस की गुड बुक में सदैव रहो, नौकरी में कभी आँच आ ही नहीं सकती।’

नंदू दोनों सूटकेस बड़े साहब के लिए तैयार किए गए बेडरूम में रख गाड़ी की चाबी मुकेश को पकड़ा किचन में रेखा की मदद के लिए चला गया। “नंदू जलपान जल्दी लगाओ।” कहता हुआ मुकेश दो पल के लिए बड़े साहब के सामने पड़े सोफे पर बैठा, फिर किचन की ओर देखते बोला, “रेखा! जल्दी भिजवाओ।” “रेखा… कौन?” बड़े साहब सेंटर-टेबल पर रखी कादंबिनी के पृष्ठ पलटते प्रश्न कर बैठे। “रेखा… सर! नंदू की वाइफ है… घर का सारा काम वही करती है।” मुकेश सकुचाते  बोला।

“सारा काम…अनमैरिड हो और लेडी सर्वेंट … गड़बड़ घोटाला क्यों जनाब?” बड़े साहब अपनी आँखें मटकाते शरारती मूड में बोले। “नो सर! ऐसा कुछ नहीं बड़ी भली स्त्री है।” मुकेश स्थिति को स्पष्ट करते हुए बोला। नंदू व रेखा जलपान सामग्री सेंटर-टेबिल पर जमाने लगे। सामान जमाती रेखा पर बड़े साहब की कुदृष्टि देख मुकेश एक पल को विचलित हो उठा। “बाथरूम किधर है?” मेम बोल पड़ीं। मुकेश ने नंदू को संकेत किया। नंदू मेम को बेडरूम की ओर ले गया रेखा भी जलपान का सामान सेंटर-टेबल पर रख किचन की ओर चल दी, तभी बड़े साहब रेखा को पीछे से निहारते मुकेश की जाँघ पर हाथ मारते बोल पड़े, “क्या पटाखा माल है।… कभी इंजॉय किया?”

“नो सर!…. ऐसा कुछ भी नहीं है।” मुकेश को बड़े साहब से ऐसे प्रश्न की कतई उम्मीद नहीं थी। वह शर्म के मारे जमीन में गड़ा जा रहा था। उसे भय हुआ कहीं रेखा ने बड़े साहब के शब्द सुन न लिए हों, तभी बड़े साहब उसकी पीठ पर धौल जमाते खड़े हो गए और बोले, “हमने तो शादी के पहले की सारी रिहर्सल इन्हीं बाईयों के साथ शुरू की थी…… अच्छा बताओ बाथरूम किधर है?”

मुकेश की स्थिति ‘काटो तो खून नहीं’ जैसी हो गई थी। बड़े साहब की आशिक मिजाजी इस हद तक बढ़ जाएगी, उसे इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी ‘उम्र और पद दोनों का कोई लिहाज नहीं? वह बाइस वर्ष का युवा और पिता की उम्र के बड़े साहब कोई पचपन-छप्पन वर्ष के।’ मुकेश खामोश बड़े साहब को बेडरूम में ले आया।

“अरे वाह! क्या शानदार बेडरूम सजाया है, रेखा ने। यही नाम बोला था न?” बड़े साहब आँख मारते मुकेश से बोले, जो उसे असहज कर गया, पर वह शांत रहा। मेम बाथरुम से बाहर आ चुकी थीं। मुकेश उन्हें अपने साथ लिए ड्राइंग-रूम में आ गया और उनके लिए चाय बनाने लगा, उसे मेम की निगाहें अपने शरीर पर घूरती हुई महसूस हुईं।

“साहब को भी आ जाने दो।” मेम ने चिप्स मुँह में रखते हुए कहा। “जी अच्छा मेम..” मुकेश रुक गया पर बैठा नहीं और किचन की ओर भोजन व्यवस्था देखने आ गया। किचन में भोजन बनाने की तैयारी शुरू हो चुकी थी। रेखा से आँखें मिलते ही मुकेश को पहली बार उससे अपनी नजरें झुकानी पड़ीं। उसे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी पर रेखा की आँखों में छुपी मुस्कुराहट को वह ताड़ गया था। ‘तो क्या रेखा ने बड़े साहब की फब्ती सुन ली थी’….. उसे बहुत ग्लानि हुई। वह पुनः ड्राइंग-रूम में आ गया। कुछ पल बाद बड़े साहब बाथरूम से निकल कर ड्राइंग-रूम में आ गए। मुकेश चाय बनाने लगा।

“मेरे में चीनी नहीं डालना… डायबिटिक हूँ…. ‘चीनी कम’ देखी क्या अमिताभ बच्चन की?” “नो सर! अभी नहीं सर!” “क्या यार! हर बात पर नो सर…. कभी यस सर भी बोलोगे या बस नो सर…..” बड़े साहब ठठ्ठा मारकर हँस दिए। “पिक्चर हॉल जाने का मौका ही नहीं निकल पाता है… सर!” “अरे! अब तो इंटरनेट का जमाना है, पिक्चर डाउनलोड करो और मस्त देखो। क्यों टेलीविजन नहीं दिखा… क्या वह भी नहीं है? “है सर!…. आपके बेडरूम में रखवा दिया है… केबल कनेक्शन भी है।” “…..और सीडी प्लेयर वगैरह।” “वह अभी नहीं लिया सर! अब उसकी जरूरत भी नहीं।”

“अरे ले डालो, अच्छा चलो, सीडी प्लेयर क्या, मैं तुम्हें एक अच्छा-सा मोबाइल गिफ्ट करूँगा, उसमें खूब पिक्चर देखना… और ब्लू फिल्में भी।”  एक बार पुनः बड़े साहब ठठ्ठा मारकर हँस दिए। पहली बार मेम मुस्कुरा दीं, जबकि मुकेश मारे शर्म के वहीं गड़-सा गया। उसकी हिम्मत आँखें ऊँची करने की नहीं हुई। कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा। मेहमान नवाजी करता मुकेश चिप्स की प्लेट बड़े साहब की और बढ़ाते बोला,  “लीजिए सर!…. पानी गर्म हो रहा है… सर! …कितनी देर में नहाएंगे?… सर!”

“अभी नहाएंगे, फिर थोड़ी देर आराम करके यहाँ की मार्केट घूमने चलेंगे…और हाँ वाइन की शॉप…. “सर! आपने बोला था न… मैंने रम और व्हिस्की मँगा रखी है… फ्रिज में है।” “वेरी गुड… वेरी गुड। मार्केट से वापस आकर साथ-साथ यहीं बैठ कर पिएंगे फिर साथ ही खाना खाएंगे।” “सॉरी सर! मैं नहीं पीता।” “अरे! तो पीनी शुरू कर दो आज से हमारे साथ।” बड़े साहब ऐसे बोल रहे थे जैसे कोई सरकारी आदेश दे रहे हों। बड़े साहब ने पहले स्नान किया फिर मेम ने। इस बीच मुकेश कई बार अपने आप से दोहरा चुका था, ‘उसे बड़े साहब के रुकने की व्यवस्था सर्किट हाउस में करानी चाहिए थी।’

बड़े साहब ने मार्केट घूमा कम लफ़्फ़ाजी ज्यादा हाँकी, जिसे मुकेश एक कान से सुनता और दूसरे कान से उड़ाता रहा। हाँ! मेम ने कुछ खरीदारी जरूर की। बॉस को खुश रखने के चक्कर में मुकेश ने खरीददारी का सारा भुगतान अपनी जेब से किया। बड़े साहब उसे भुगतान करते ऐसे देख रहे थे, जैसे यह दायित्व उसी का हो। इस सब में ज्यादा तो नहीं, पर करीब पाँच हजार की चपत उसे पड़ चुकी थी। इतनी ही धनराशि वह उनके स्वागत-सत्कार की तैयारी में पहले ही व्यय कर चुका था।

मार्केटिंग कर जल्दी ही वे सब वापस आ गए, फिर चला दारू का दौर। मुकेश के विनम्रतापूर्वक पीने में साथ न देने के अनुरोध को बड़े साहब ने थोड़ा रोष-गुस्सा-साहिबी दिखाने के बाद अंततः मान लिया, पर उनका साथ आशा के विपरीत मेम ने दिया। मुकेश को मेम का शराब पीना अखरा। भारतीय नारी का यह रूप उसके लिए बर्दाश्त से बाहर था। बड़े साहब कभी मेम से कभी भोजन परोस रही रेखा से हँसी-ठिठोली करते रहे। किसी तरह रात्रि-भोजन समाप्त करते-कराते रात के ग्यारह बज गए।

बड़े साहब और मैडम को उनके बेडरूम में पहुँचाकर मुकेश ने नंदू व रेखा से किचन, ड्राइंग-रूम साफ कराया और उन्हें सुबह जल्दी आने को कह दिया। रात बारह बजे के बाद मुकेश को बिस्तर नसीब हुआ। दिनभर का हारा-थका शरीर ड्राइंग-रूम पर रखे दीवान पर लेटते ही निद्रा देवी के आगोश में चला गया।

रात्रि का तीसरा प्रहर बीता होगा। मुकेश गहरी नींद में सोया पड़ा था, तभी बड़े साहब ने उसे झकझोर कर जगा दिया। अकबकाया-सा “सर! सर!” कहता मुकेश उठकर बैठ गया। उसे एकाएक इस तरह से जगाने पर किसी अनहोनी की आशंका हुई। हाथ में व्हिस्की की बोतल थामे बड़े साहब की नशे में चढ़ी आँखें और लड़खड़ाते शरीर को देख मुकेश हक्का-बक्का रह गया।

“क्या हुआ सर? सब ठीक तो है?” “हुआ कुछ नहीं… यार… बैठो।” बड़े साहब धम्म से सोफे पर मुकेश को थामे बैठ गए। “जी सर!…बताएं सर!’ “यार श्रीवास्तव!… तुम अंदर जाओ।” बड़े साहब बेडरूम की ओर इंगित करते मुकेश से बोले। “जी सर अंदर…?’ मुकेश को अप्रत्याशित लगा, “यह आप क्या कह रहे हैं सर?” बड़े साहब ने व्हिस्की का घूँट भरा, फिर उसे अपना फरमान सुनाया, “तुम अंदर सोने जाओ। मैं यहां सोऊंगा…” “सर अंदर मेम हैं …मेरा मतलब भाभी जी…”

“भाभी….ह ह ह ह…भाभी काहे को रंडी है साली.. रंडी, सो कॉल्ड एजुकेटिड कॉलगर्ल… एक रात के लिए आई है… शादीशुदा है। रहन-सहन में सलीका है, सो बाजारू नहीं दिखती। दारू के नशे में, ऊपर से बढ़ती उम्र..अब पहले जैसा नहीं हो पाता…पर शौक़ कहाँ कम होते हैं.. श्रीवास्तव! तुम चले जाओ उसके पास। गबरु जवान हो उसकी आग को ठंडा कर दो…सुलगा तो मैं आया हूँ, पर कब खुद ठंडा हो गया पता नहीं चला साल्ला.. यह साली डायबिटीज जबसे….” नशे की झोंक में बड़े साहब औंधे मुँह बाए वहीं सोफे पर पसर गए। जल्दी ही उनकी मेंढकनुमा नाक खर्राटे बजाने लगी।

मुकेश किंकर्तव्यविमूढ़-सा कभी बड़े साहब की बजती नाक को, तो कभी बेडरूम के दरवाजे के पर्दे को अपने दीदे फाड़े देख रहा था …उसकी नींद कब की कपूर की भाँति आँखों से उड़ चुकी थी। अनिर्णय की स्थिति से उबरने के बाद मुकेश ने सेंटर-टेबल पर रखी बड़े साहब की आधी पी झूठी व्हिस्की की बोतल उठाकर वाश बेसिन में उड़ेल दी और ताजी हवा के लिए बाहर निकल गया।

केदारनाथ अग्रवाल का जीवन परिचय 

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