Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीAurangjeb Aur Champatrai औरंगजेब और च॑पतराय

Aurangjeb Aur Champatrai औरंगजेब और च॑पतराय

औरंगजेब ने चंपतराय को हुक्म दिया कि तुम इलाहाबाद शुजा से लड़ने जाओ। यह हुक्म चंपतराय को बहुत बुरा लगा और  उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। Aurangjeb Aur Champatrai के बीच बिगाड़ होने का असली कारण चंपतराय की स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की इंच्छा थी। उस समय औरंगजेब और  शुजा का युद्ध खत्म नही  हुआ था। चंपतराय ने यही मैका औरंगजेब से स्वतंत्र हो कर अपना राज्य स्थापित करने का सोचा।

 

बुंदेलखंड के चतुर एवं वीर योद्धा – महाराज चम्पतराय

पहाडसिंह ने चंपतराय के मारने का प्रयत्न किया, परंतु वह सफल नही हुआ। ऐसे समय मे बुंदेलखंड का भाई-भाई  की लड़ाई से बहुत हानि पहुँची । पहाड्सिंह ने चंपतराय को हानि पहुँचाने का एक प्रयत्न और भी किया। शाहजहां ने जब बुंदेलों से संधि की तब कोंच की जागीर चंपतराय को दी थी। चंपतराय की महोबा की जागीर बहुत छोटी थी । कोंच की जागीर मिल जाने से उनके खर्चे का प्रबंध अच्छा होने लगा था।

पहाड्सिंह ने यह जागीर चंपतराय से ले ने का प्रयत्त किया। उस समय शाहजहां के दरबार मे दारा की बहुत चला करती थी। दारा शाहजहाँ बादशाह का बड़ा लड़का था और उसने राज्य का सब कार्यभार उसी के सुपुर्द कर दिया था। ओरछा के राजा पहाड़सिंह ने दारा से बहुत विनम्रता के साथ यह बिनती की कि चंपतराय की जागीर मुझे दे दी जाय। मैं तीन लाख रुपए जागीर से मुगल दरबार के दूँगा और चंपतराय से अ्च्छा प्रबंध करूँगा ।

इस समय चंपतराय केवल एक लाख रुपए उस जागीर  से बादशाह को दिया करते थे । पहाड़सिंह ने तीन लाख देने का वचन देकर जागीर मांगी। दारा ने ताव मे आकर पहाड़सिंह को यह जागीर दे दी। इस बात पर चंपतराय को  बहुत बुरा लगा और  उन्होंने मुगल दरबार में ही दारा के काम की निंदा की और मुगलों की अधीनता में न रहने का निश्चय कर दिया ।

इस प्रकार चंपतराय से जागीर तो ले  ली गई, परंतु जिस बीरता के लिये चंपतराय को यह जागीर मिली थी वह गुंण चंपतराय से कोई न ले सका। उन्हें भी दारा से बदला लेने का मौका मिल गया । औरंगजेब दारा से वैमनस्य रखता था। दरबार में दारा ही सब काम करता था और यह बात औरंगजेब को बहुत बुरी लगती थी।

औरंगजेब चाहता था कि शाहजहाँ के पश्चात्‌ मुझे बादशाहत मिले, परंतु शाहजहाँ अपने बड़े लड़के दारा को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था और उसके कई सरदार भी दारा की मदद करते थे। इस कारण औरंगजेब ने दारा के प्रभाव को घटाने का निश्चय किया। उस ससय औरंगजेब दक्षिण का सूबेदार था। उसने दारा के विरुद्ध चंपतराय से सहायता मॉगी चंपतराय दारा से बदला लेना ही चाहते थे, इसलिये उन्होंने औरंगजेब की सहायता करना स्वीकार कर लिया ।

वि० सं० 1714 में शाहजहाँ के लड़कों मे यह खबर फैल गई कि बादशाह बीमार हो गया है। यही कारण था कि उसके लड़कों ने इस आशा से कि उनका पिता शीघ्र ही मर जायगा राज्य के लिये लड़ना आरंभ कर दिया। चंपतराय का उद्देश्य औरंगजेब की सहायता करने में केवल इतना ही था कि वे दारा से बदला ले सके और बुंदेलखंड को मुगलों से स्वतंत्र कर सके।

दारा के पास बादशाह की बहुत सी सेना थी । इसने अपने लड़के सुल्लेमान शिकोह को भेजकर बंगाल से आनेवाले शुजा को सबसे पहले हराया। फिर दारा ने औरंगजेब की सेना का सामना करने के लिये धौलपुर के पास चंबल नदी का घाट रोक लिया। मुराद शाहजहाँ का सबसे छोटा लड़का था। वह इस समय गुजरात मे था। औरंगजेब बढ़ा ही स्वार्थी, दगाबाज और चालबाज था।

इसने मुराद से फकीर बनने का ढोंग किया और  कह दिया कि में तुम्हीं को बादशाहत दूँगा। मुराद उसकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गया और अपनी सारी सेना लेकर औरंगजेब के साथ मिल गया। औरंगजेब तो यह चाहता ही था, इसने सारी फौज लेकर अवंती ( उज्जैन ) पर चढ़ाई कर दी। यहाँ पर मुकुंदसिंह हाड़ा सूबेदार था। इसने भरसक रोकने का प्रयत्न किया, पर वह युद्ध में हारा और मारा गया ।

औरंगजेब उज्जैन होकर नरवर आया। यहाँ से उसने चंपतराय को बुलवाने के लिये अब्दुल्लाखां को भेजा। वे भी अपने प्रतिज्ञानुसार औरंगजेब को  सहायता देकर अपना अभीष्ट सिद्ध करने के लिये आ गये। दारा ने चंबल का मुख्य घाट तो  रोक ही लिया था इससे इन्होंने दूसरे घाट से नदी पार की और सेना लेकर दारा की सेना का सामना आगरा के पास सामोगढ़ में वि० सं० 1715 मे किया। इस समय दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ।

दारा की सेना के सेनापति बूँदी-नरेश छत्नसाल हाड़ा थे। ये भी बड़े बुद्धिमान और वीर थे, पर चंपतराय की बुद्धिमत्ता के सामने उनकी एक भी न चली।  वे युद्ध मे हार ही गए  युद्ध के पश्चात्‌ औरंगजेब ने मुराद को शराब पिलाकर कैद कर लिया और उसे ग्वालियर के किले में बंदी कर दिया तथा वह स्वयं बादशाह हो गया। दारा और अपने पूज्य पिता को भी औरंगजेब ने कैद कर लिया ।

चंपतराय को दिल्ली दरबार से बहुत मान मिला। परंतु कुछ दिन के पश्चात्‌ औरंगजेब और  चंपतराय में फिर अन- बन हो गई। इस अनबन के कई कारण हैं। दारा की छड़ाई के समय चंपतराय ने एक बहुत अच्छा घोड़ा पकड़ लिया था। यह घोड़ा बहादुरखां का था। उसे औरंगजेब नें चंपतराय से माँगा । चंपतराय ने देने से इनकार किया, क्योंकि वह उन्हें युद्ध के समय सिला था। औरंगजेब को यह बात बहुत बुरी लगी ।

इसी समय औरंगजेब का भाई शुजा फिर बड़ी फौज  लेकर इलाहाबाद लडने आया। औरंगजेब ने चंपतराय को हुक्म दिया कि तुम इलाहाबाद शुजा से लड़ने जाओ। यह हुक्म चंपतराय को बहुत बुरा लगा और  उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। इन कारणों से चंपतराय का औरंगजेब के साथ बिगाड़ होने का असली कारण चंपतराय की स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की इंच्छा थी। उस समय औरंगजेब और  शुजा का युद्ध खत्म नही  हुआ था। चंपतराय ने यही मैका औरंगजेब से स्वतंत्र हो कर अपना राज्य स्थापित करने का सोचा।

औरंगजेब हमेशा ही चंपतराय को तंग करने का प्रयत्न किया करता था, पर उसे एक हिंदू बीर का सम्मान विवश हो करना पड़ता था और बह भी अपने स्वार्थ के लिये। परंतु वह हमेशा किसी बहाने से चंपतराय की जागीर वापस लेने के प्रयत्न मे था। चंपतराय को  औरंगजेब की यह नीयत अच्छी तरह से मालूम हो गई थी । इसी कारण चंपतराय ने औरंगजेब की दी हुई सनदें  और घोडे वापस कर दिए और साफ तौर से औरंगजेब से उसकी अधीनता में रहने से इनकार कर दिया ।

परतंत्रता को त्याग स्वतंत्रता का डंका बजाते हुए चंपतराय बुंदेलखंड आए । चंपतराय की वीरता का डंका सारे देश में बज चुका था। इनके वापस आते ही सेना सरलता से मिल गई। इस सेना के सहारे और अपनी  वीरता के बल से राजा चंपतराय ने एक के पश्चात्‌ दूसरा किला  जीतना आरंभ कर दिया। औरंगजेब चंपतराय की चतुरता को जानता था। उसे मालूम था कि चंपतराय के सामने कोई सेनापति नही  टिक सकेगा।

इस कारण औरंगजेब ने दतिया के राजा शुभकरण को जो कि सूबे बुंदेलखंड का दिल्ली की बादशाहत की ओर  से सूबेदार भी नियुक्त किया गया था, सेना के सेनापतित्व के लिये चुना । शुभकरण बुंदेलखंड के प्रत्येक भाग से परिचित था और वह बुंदेलखंड में पहले लूट-मार भी किया करता था। बादशाह औरंगजेब ने एक बड़ी भारी सेना शुभकरण के सुपुर्द की और उसे चंपतराय का नाश करने का हुक्म दिया।

औरंगजेब के पास से आने के पश्चात्‌ चंपतराय ने पहले तो भांडेर को जीता, फिर एरच का किला ले  लिया और यहीं पर अपने ठहरने का स्थान बनाया । फिर इसी स्थान से बुंदेलखंड को  स्वतंत्र करने का प्रयत्न आरंभ किया । इसी समय मुगलों का नौकर बनकर शुभकरण, अपने बुंदेलखंडी बीर के स्वतंत्र होने के प्रयत्न को निष्फल करने के लिये, बहुत सी मुगल सेना लेकर आ पहुँचा। शुभकरण की सेना और चपतराय की सेना से कई युद्ध हुए।  शुभकरण चंपतराय का हरा न सका।

औरंगजेब ने जब देखा कि शुभकरण से कुछ नही  बन सका तब वह स्वयं अपनी बड़ी सेना लेकर बुंदेलखंड पर चढ़ आया और चंपतराय को घेर लेने का प्रयत्न करने लगा।  चंपतराय ने हिम्मत नही  छोडी । बुंदेलखंड मे औरंगजेब के  सेना बिना बुंदेलों की सहायता के कुछ भी नही  कर सकती थी। इसलिये औरंगजेब ने अपनी सेना में बहुत से बुंदेले भरती किए। इनकी और  शुभकरण की सहायता से चंपतराय के ठहरने के सब मार्ग औरंगजेब को मालूम होते गए। औरंगजेब को चंपतराय से युद्ध करते समय इनकी ही सहायता ने बहुत काम दिया ।

औरंगजेब की बड़ी सेना होने पर भी चंपतराय और उनकी सेना ने धीरता और  वीरता से लडाई लडी परंतु धीरे धोरे चंपतराय की सेना कम होती गई। पहाड़सिंह का देहांत हो गया था, पर॑तु पहाडसिंह की पत्नी ने अपने पति के वैरी चंपतराय को हराने के लिये चंपतराय के मित्र और सरदार सुजानराय को बेदपुर मे धोखे से मरवा डाला। सुजानराय की मृत्यु से चंपतराय को बहुत दुःख हुआ और उनकी कार्यसिद्धि मे एक बड़ी बाधा हुई। इस युद्ध मे चंपतराय के पुत्रों ने भी उन्‍हें बहुत सहायता दी।

चंपतराय की फौज  कम हो  जाने के कारण वे सहरा के जांगीरदार इंद्रमणि के पास गए। इंद्रमणि चँपतराय के पुराने मित्र थे । पर ये घर पर न थे। तभी साहिब सिंह धंघेरे ने चंपतराय का स्वागत किया। इसके पश्चात्‌ राजा चंपतराय ने छत्नसाल को धानसिंह के पास भेजा। ये छत्तसाल के बहनोई थे, परंतु ऐसे अवसर पर छत्नसाल का स्वागत करना तो  दूर रहा बहिन ने बात तक न पूछी। थानसिंह घर मे नहीं थे। वे रात्रि को आए।

सहरा मे भी रहना चंपतराय ने उचित नही समझा । इससे वे बीमारी की हालत मे ही अपनी रानी महारानी लालझुँवरि को साथ ले मेरन गॉव जाने के लिये निकल पड़े। सहरा के साहिब सिह धंधेरे ने अपने दो  सौ  सिपाही महाराज के साथ रक्षा के लिये कर दिये थे। सहरा से ये कोई 7 कोस आए थे कि सिपाहियों ने इनके साथ विश्वासघात कर मारना चाहा। कितु महारानी लालकुंवरि और महाराज चंपतराय ने सिपाहियों के हाथ से मरने की अपेक्षा आत्महया करना ही उचित समझा । दोनों ने अपने अपने पेट में कटारें मार ली। यह घटना वि० सं० 1721 मे हुई ।

आधार – बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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